जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के उपदेशों के माध्यम से आत्म-स्वरूप की विचारधारा:
अब आप यह विचार करें कि आप कौन हैं एवं आप अपना आनन्द चाहते हैं या किसी और का चाहते हैं। आप कहेंगे कि मैं कौन हूँ यह तो नहीं जानता किन्तु इतना जानता हूँ कि मैं केवल अपना ही आनन्द चाहता हूँ। यदि आप मायिक तत्त्व होते तो मायिक पदार्थों से आपको आनन्द-प्राप्ति हो जाती, किन्तु आप ईश्वर के अंश है अतएव ईश्वरीय दिव्यानन्द से ही आप आनन्दमय हो सकते हैं। तर्कसम्मत सिद्धान्त भी है, साथ ही अनादिकाल के अनुभव से भी सिद्ध है कि यदि मायिक आनन्द से दिव्य जीव को दिव्य आनन्द मिलना होता तो अनन्तानन्त युगों से अब तक मायिक सुख मिलते हुए हम इस प्रकार दुःखी, अशान्त, अतृप्त, अपूर्ण न रहते। यह अनुभव-प्रमाण ही यह बोध कराने में समर्थ है कि हम मायिक नहीं हैं। फिर भी हमें इस तत्त्व पर गम्भीर विचार करना है।
कुछ भोले प्रत्यक्षवादी कहते हैं कि इन्द्रियादि की भाँति आत्मा भी देह का परिणाम है। पृथ्वी, जल, तेज, वायु बस इन्हीं ४ तत्वों से देह एवं 'मैं' बना है। अर्थ एवं काम दो पुरुषार्थ हैं। प्रत्यक्ष प्रमाण ही प्रमाण है। इन प्रत्यक्षवादियों में भी कोई देह को, कोई चक्षुरादि को, कोई प्राण को आत्मा मानते हैं, सांसारिक विषय-सुख को ही स्वर्ग एवं वियोगादि दुःख को ही नरकादि मानते हैं।
बाह्य पृथ्वी, आदि महाभूतों में चैतन्य न दीखने से चैतन्य को भूतों का धर्म नहीं कहा जा सकता। यदि कहा जाय कि देहाकार में परिणत भूतों का ही धर्म चैतन्य है तो यह ठीक नहीं, क्योंकि मृतावस्था देह के रहते चैतन्य नहीं रहता। में
यदि समुदायभूत अवयवी को चैतन्य कहा जाय तो एक अवयव के नष्ट होने पर सब अवयव नष्ट हो जाने चाहिए।
यदि एक-एक अवयव को चैतन्य कहा जाय तो परस्पर सदा विरोध रहेगा एवं ऐसा किसी के अनुभव में नहीं आता। देह के रहने पर ही ज्ञानेच्छादि का प्राकट्य देख कर देह में आत्मभाव मान लेना भोलापन है, क्योंकि काष्ठादि के न होने पर यदि अग्नि प्रकट नहीं दीखता तो इसका अभिप्राय यह नहीं कि अग्नि तत्त्व ही नहीं है।
यदि भौतिक पदार्थों के अनुभव को चैतन्य कहा जाय तो फिर यह आपत्ति आयेगी कि वे तो विषय हैं। जैसे अग्नि सर्वदहनसमर्थ है पर स्वयं को नहीं जला सकती, नट अपने कंधे पर नहीं बैठ सकता, वैसे ही यदि चैतन्य भौतिक धर्म हो तो भौतिक पदार्थ को विषय नहीं बना सकता। जैसे प्रकाश के अभाव में दीपक की उपलब्धि नहीं होती क्योंकि उपलब्धि दीपक का धर्म नहीं है, वैसे ही आत्मा देह धर्म नहीं है।
इसके अतिरिक्त अनुभव द्वारा भी विचार कीजिये। जब आप जाग्रत में रहते हैं तब ऐसा बोलते हैं कि मैं देखता हूँ, मैं सुनता हूँ, मैं सूँघता हूँ, आदि। अर्थात् आप मानो इन्द्रियाँ ही हैं । किन्तु जब आप स्वप्नावस्था में स्वप्न बनाने लगते हैं तब, यद्यपि शरीरेन्द्रियाँ आपकी खाट पर पड़ी रहती हैं फिर भी आप स्वप्न में न जाने किस आँख से देखते हैं, सुनते हैं, सूँघते हैं, इत्यादि। इससे सिद्ध होता है कि आप इन्द्रियाँ नहीं हैं, भले ही मन हों, किन्तु जब आप गहरी नींद, सुषुप्ति अवस्था में सो जाते हैं तो कुछ भी अनुभव नहीं करते।
अब यह सिद्ध हो गया कि 'मैं' इन्द्रिय, मन आदि नहीं अपितु ईश्वरीय अनादिकालीन नित्य अंश हूँ। अतएव हमारा सुख ईश्वरीय होगा। संसार में हमारा सुख तर्क एवं अनुभव दोनों के विरुद्ध है। यही कारण है कि यद्यपि मन आदि अनन्त युगों से प्रतिक्षण मुझे यह धोखा देना चाहते हैं कि अब की बार मुझे अमुक वस्तु से सुख मिल जायगा, वह वस्तु मिलती भी है, परन्तु सुख नहीं मिलता। यदि हम मन बुद्धि के सजातीय होते तो उसके बहकाने में आ जाते किन्तु मैं दिव्य तत्त्व हूँ अतएव जब तक नित्यानन्द न प्राप्त हो जायगा तब तक महत्तम मायिक पदार्थों के पाने पर भी 'मैं' आनन्दमय नहीं हो सकता। अब आप संसार सूक्ष्म एवं स्थूल रूप पर विस्तृत मीमांसा करें, क्योंकि यहाँ पर ही मन अटका हुआ है एवं बुद्धि का भी यह निश्चय सा बना हुआ है कि संसार में सुख अवश्य है एवं अवश्य मिलेगा तभी तो हम तदर्थ प्रतिक्षण प्रयत्नशील हैं। निष्कर्ष: इस ब्लॉग में, हमने जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के उपदेशों के माध्यम से आत्म-स्वरूप की विचारधारा पर चर्चा की है। इसमें हमने देखा कि हम कौन हैं और हमारी सच्ची ख़ुशियाँ कहाँ से मिलती हैं। हमारे अंतरंग भाग्य के रूप में हम ईश्वर के अंश हैं, और इसलिए हमारी ख़ुशियाँ ईश्वरीय दिव्यानन्द से ही साक्षात्कार की जा सकती हैं। इसके अलावा इस ब्लॉग में भोले प्रत्यक्षवादियों के विचारों का भी विश्लेषण किया है, जो देह को ही आत्मा मानते हैं। हमें बताया गया है कि यदि हम इन्द्रियों के अधीन होते, तो हम भी संसारिक सुखों से पूर्ण होते, लेकिन हमारी ख़ुशियाँ संसारिक विषय-सुखों से नहीं आतीं। इससे सिद्ध होता है कि हम वास्तव में अपने देह और इंद्रियों से अलग हैं। ब्लॉग ने इस विचार को विस्तार से समझाया है कि देहाकार तत्त्व से हमारा संबंध नहीं है, बल्कि हम ईश्वरीय अनादिकालीन नित्य अंश हैं। हमारा आनंद सच्चे ईश्वरीय अनन्त आनंद में है।
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के उपदेश हमें संसार में ढूँढने वाली ख़ुशियों के तर्क और अनुभव के विरोध में से बाहर निकलकर सच्चे आनंद की खोज में ले जाते हैं। यह अनुभव और सिद्धान्त हमें यह समझने में सहायता करते हैं कि हम अपनी सच्ची ख़ुशियों का अनुसरण करें और दुर्भाग्यशाली विषय-सुखों में न उलझें। हमारा सच्चा आनंद ईश्वरीय है और इस दिव्य आनंद को प्राप्त करने के लिए हमें अपने आत्म-स्वरूप को विशुद्ध करने और दिव्य भावना को स्थायी बनाने की दिशा में काम करना चाहिए।
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