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निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य: जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज का अप्रतिम योगदान

Writer: Kripalu Ji Maharj BhaktiKripalu Ji Maharj Bhakti

निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य समस्त दर्शनों का शास्त्र वेद सम्मत समन्वय करने में पारङ्गत समन्वयवादी परमाचार्य


सभी पूर्ववर्क अग‌रुओं ने वैदिक जाकी एक-एक शखा को पकड़ कर उसी को पूर्ण महता दी, उसो सम्बन्ध का प्रचार प्रसार किया और उसे ही सत्य सिद्ध किया, जैसे जगदगुरु शंकराचार्य ने अर्द्धसाद का ही प्रथ किण। इसी प्रकार अन्य जशुओं भी विशिष्टता दैतवाद एवं दैतवाद आदि का प्रचार किया। उसे ही मिड करने के लिये भानादि लिये। जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ऐसे पहले जगद्गुरु हुये जिन्होंने हर जगत्शुरु एवं अन्य विद्युत मंत्रों के मतों का समान रूप से स्वागत किया। अपने आश्चर्यजनक सकों वेदशा के प्राणों द्वारा सभी के यती की सार्थकता को प्रमाणित किया और सतका समन्वय करते हुये समस्त मत मतान्तरों का सारांश बताया एवं जनसभा की उससे क्या और कैसे लाभ वन्य है, का भी प्रस्तुत किया। एक अत्यन्त दुरुह कार्य था जो श्री कृपालु जी महाराज ने बड़े हो साल दर से प्रस्तुत किया। अतः कालों विद्वत् परिषद् ने इन्हें निखितदर्शनसमन्वयाचार्य की उससे भी आतंकृत किया।


सन् 1955 में चित्रकूट में एवं सन् 1956 में कानपुर में आयोजित अखिल भारतवर्षीय भक्तियोग दार्शनिक सम्मेलनों में ही आचार्य श्री का यह स्वरूप प्रकट हो गया था। यद्यपि काशी विद्वत्परिषत् ने पूर्ण परीक्षण के बाद उन्हें इस उपाधि से 14 जनवरी 1957 में विभूषित किया। चित्रकूट सम्मेलन में आचार्य श्री ने:-

• नाना शास्त्रों में दीखने वाले वैमत्य और मतभेदों का निराकार करके उसका समन्वय किया।

• कर्म, ज्ञान, उपासना आदि मार्गों के पारस्परिक संबंधों पर प्रकाश डालते हुए मीमांसा आदि शास्त्रों की परमानन्द प्राप्ति में उपादेयता बताई। .

• पश्चिमी दार्शनिक सिद्धान्तों तथा भारतीय विभिन्न दार्शनिक सिद्धान्तों तथा• अद्वैत तथा द्वैत और उसमें भी विशिष्टाद्वैत, द्वैताद्वैत, शुद्धाद्वैत, अचिन्त्यभेदाभेद तथा पुष्टि मार्ग का सविस्तार वर्णन करते हुए उनके सिद्धान्तों का समन्वय किया।

• अन्त में उन्होंने भवगान् राम कृष्ण की भगवत्ता तथा

• भगवान् उनके नाम, रूप, गुण, लीला, धाम और उनके जन (महापुरूष) की अभिन्नता पर प्रकाश डालकर भक्ति मार्ग को सर्वसुलभ, सार्वकालिक और सर्वोपरि सिद्ध करके भक्तिरस की विलक्षणता पर प्रकाश डाला वह भी अत्यधिक सरल, सरस और ओजस्वी वाणी में तथा साधिकार शास्त्रों वेदों आदि के प्रमाण सहित।


जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने कानपुर सम्मेलन, 1956 में भौतिकवाद एवं आध्यात्मिकवाद का समन्वय किया था एवं निम्न प्रश्नों पर विशेष प्रकाश डाला था-• भौतिकवाद एवं आध्यात्मिकवाद का सनातन सम्बन्ध तथा उनका वास्तविक विशुद्ध स्वरूप विश्लेषण।


• भौतिकवाद एवं आध्यात्मिकवाद को एक दूसरे की अनिवार्य आवश्यकता

• भौतिकवाद एवं आध्यात्मिकवाद का अन्तिम विशुद्ध-सिद्ध परिणाम

• भौतिकवाद एवं आध्यात्मिकवाद की समन्वयात्मक निर्विवाद सिद्ध क्रियात्मक साधना।


1. (क) विश्व का प्रत्येक जीव स्वभावतः आस्तिक है।

(ख) विश्व का कोई भी जीव अनन्त काल तक निरन्तर प्रयत्न करके भी आस्तिक नहीं हो सकता।


2. (क) ईश्वर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि से अग्राह्य है।

(ख) ईश्वर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि से ग्राह्य है।


3. (क) ईश्वर, निर्गुण, निर्विशेष, निराकार है।

(ख) ईश्वर, सगुण, सविशेष, साकार है।


4. (क) ईश्वर, सृष्टि कर्ता है।

(ख) ईश्वर, अकर्ता है।


5. (क) ईश्वर कृपा से ही ईश्वर प्राप्ति हो सकती है।

(ख) स्वयं की साधना से ही ईश्वर प्राप्ति हो सकती है।


6. (क) कर्म निन्दनीय है।

(ख) कर्म वन्दनीय है।


7. (क) ज्ञान निन्दनीय है।

(ख) ज्ञान वन्दनीय है।


8. (क) भक्ति साधन है।

(ख) भक्ति साध्य है।


9. (क) महापुरुष मायाबद्ध हो जाते हैं।

(ख) महापुरुष मायाबद्ध नहीं हो सकते।


10. (क) गोबर के लड्डू में रसगुल्ले की भावना से रसगुल्ले का लाभ नहीं मिलता।

(ख) मूर्ति आदि में ईश्वरीय भावना का लाभ मिलता है।


11. (क) कुछ न करने से सब कुछ मिल जाता है।

(ख) सब कुछ करने से कुछ नहीं मिलता।


निष्कर्ष:

जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने न केवल शास्त्रों और दर्शनों के बीच समन्वय स्थापित किया, बल्कि भक्ति, ज्ञान, और कर्म मार्गों को समान महत्व देते हुए उन्हें मानवता के कल्याण का साधन बनाया। उनकी सरल, सशक्त, और प्रमाणिक वाणी ने जटिल दार्शनिक मुद्दों को भी जनसामान्य के लिए सुलभ और उपयोगी बना दिया। उनके द्वारा प्रस्तुत निखिलदर्शन समन्वय ने यह सिद्ध किया कि आध्यात्मिकता और भौतिकता में कोई विरोधाभास नहीं है, बल्कि वे एक दूसरे के पूरक हैं। उनके विचार और उपदेश सदा मानवता को सही दिशा में प्रेरित करते रहेंगे।

 
 
 

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